Saturday, May 1, 2010

कांच के पेड़

आये दिन बदलते अपनी रंग औ महक
निर्विकार, हसते क्यूँ रहते हैं ये?

ये कभी छाँव नहीं देते,
औ ना ही रोकते कभी बारिस की बूंदों को
हाँ, बर्फ के गोले बना गिराते रहते हैं।

अब फल तोड़ने का रिवाज नहीं रहा
ना ही झूलते देखता हूँ बच्चों को इन पेड़ों पे।

मेरे हाथों में पत्थर है आज,
और चंचल है मन भी।
आशातीत इक प्रयास,
पर चोट से ये पेड़ बिखर जाते हैं।

ये पेड़ कांच के हैं।

Saturday, October 10, 2009

लोहे के पेड़ हरे होंगे

लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल।

सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
आशा के स्वर का भार, पवन को लिकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा।
रंगो के सातों घट उँड़ेल, यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल।

आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रग्या प्रग्या पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल, निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल।

सूरज है जग का बुझा-बुझा, चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई, आलोक न इनका जगता है,
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनको ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण, दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को अपनी अस्थियाँ जलाता चल।

क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे सोने-चाँदी के तारों में ?
मानवता का तू विप्र, गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल, मगर उस का भी मोल चुकाता चल।

काया की कितनी धूम-धाम! दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयुष, मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है ।
लेने दे जग को उसे, ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण में नीचे-नीचे चलता है।
कनकाभ धूल झर जाएगी, वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
सौरभ है केवल सार, उसे तू सब के लिए जुगाता चल।

क्या अपनी उन से होड़, अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं, गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
जो चतुर चाँद का रस निचोड़ प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से जो इत्र निकाला करते हैं।
ये भी जाएँगे कभी, मगर, आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुसकाता आया है, वैसे अब भी मुसकाता चल।

सभ्यता-अंग पर क्षत कराल, यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे, हमारी आँखों में गंगाजल है।
शूली पर चढा मसीहा को वे फूल नहीं समाते हैं
हम शव को जीवित करने को छायापुर में ले जाते हैं।
भींगी चाँदनियों में जीता, जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के मन में गोधूलि बसाता चल।

यह देख नयी लीला उन की, फिर उन ने बड़ा कमाल किया,
गाँधी के लोहू से सारे, भारत-सागर को लाल किया।
जो उठे राम, जो उठे कृष्ण, भारत की मिट्टी रोती है,
क्य हुआ कि प्यारे गाँधी की यह लाश न जिन्दा होती है?
तलवार मारती जिन्हें, बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी! यह भी कमाल दिखलाता चल।

धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसाएगी,
दिन की कराल दाहकता पर चाँदनी सुशीतल छाएगी।
ज्वालामुखियों के कण्ठों में कलकण्ठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा, फूलों से भरा भुवन होगा।
बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल-खोल सब के भीतर शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।

-रामधारी सिंह 'दिनकर'

Thursday, October 1, 2009

शब्दों की दुकान

चौराहे से चार-कदम आगे रौशनी है -
बारूद-भरे पटाखे सड़क पर - घड़ी-घड़ी धमाका

जाके देखता हूँ तो रंग-बिरंगी चादरों में लिपटी एक मूर्ति दिखती है,
औ उसके नीचे एक नव-दम्पति सर झुका के शतरंज खेल रहे हैं।
हुक्कों की गुरगुराहट से ध्यान बंटता है-
कुछेक दुरी पर इक और जमावट है - बुड्ढों की,
सब मग्न अपनी दुनिया में,
धमाका, धुआं, खेल ।

समय देखता हूँ, शाम हो चुकी है- खरीदारी भी करनी है,
दुकानों की तरफ़ मुखातिब हूँ, सब बंद परे हैं।
आश्चर्यचकित सा बंद-बाज़ार से गुजर रहा हूँ,
कुछ कमी का अहसास है-

बाज़ार ख़त्म होते ही पुल आता है -
चलता हूँ तो पुल भी मेरे साथ चला आ रहा सा लगता है,
घर के दरवाजे पे एक इश्तिहार है-
अन्दर जाके देखता हूँ, लिखा है-
"शब्दों की दुकान", "कमिंग शोर्टली" !

Monday, August 24, 2009

मौसम

दूर आसमान में दिखते
बादल के दो टुकरे
यथावत- अपनी जगह पे अर्सों से

खिड़कियों से धीमे-२ आती किरणे
रोज- सुबह, दोपहर- अनवरत
न आग की तपिश, न नीर सी शीतल

कभी-२ बर्फ गिरती है
पर वो भी-गुनगुनी सी

अब मौसम नही होते!

Monday, September 8, 2008

अमेरिका में एक साल

कल एक साल हो गया यहाँ आए हुए,
एक साल!
आया था तो काफी कुछ सोच के आया था- ये करूँगा, ये नही करूँगा,
अब लगता है की कुछ भी तो नही किया,
सब कुछ उतना ही तितर-बितर है जितना पहले था
या फ़िर पहले से कहीं बदतर !

ज्यादा नही सोचता,
अगर आस्तिक होता तो भगवान् का किया-धरा समझ अपने पल्ले झार लेता,
पारिवारिक होता तो परिवार और जिम्मेदारियों की दुहाई देता,
सामाजिक होता तो बन्धनों की बात करता,
मैं इनमें से कुछ भी तो नहीं हूँ|
कवि हूँ, सच कहूँ तो "था" - अब कविताओं के लिए लय नही मिलती,
वो कला भी जाती रही |

इस भावना के लोग यहाँ शोध छात्र कहलाते हैं, शोधने की सुध तो कब की जाती रही,
अब तो सुध की शोध में रात-दिन गुजरते हैं,
वक्त बीतता हैं, मौसम भी,
पिछला जारा याद कर के सिहरता हूँ- बहुत बरफ गिरी थी यहाँ,
फ़िर से थोडी थोडी ठण्ड शुरू है- शायद यह साल और भी बदतर होगा,
कट जाएगा ये भी- अभी से क्या सोचना?

दोस्तों को शादी की जल्दी है- हर दिन एकाध मेल आते हैं,
"मेरी शादी है फलां-फलां तारिख, फलां-फलां जगह, फलां-फलां कुमारी से.........
जरुर आना"
साथ में गणेश जी का चित्र "श्री गणेशाय नमः!"
फर्क नही कर पता की आख़िर ये बचपन की जवानी है-या फ़िर जवानी का बुरहापा,
कोई अपने पाँव पे खड़े होने की कोशिश में है और किसी को दुबारा पैदा होने की जल्दी है|
देखूं तो सब कुछ वैसा ही है जैसा था, या फ़िर इतना बदल चुका की नए-पुराने की पहचान जाती रही,
कोशिश जारी है |

घर से सवाल आते हैं-दोस्तों के, सम्बन्धियों के
"और कितने साल?"
सवाल जाना पहचाना है और जवाब असंभव
टाल रहा हूँ- सुध की शोध जारी रही
देखते हैं अगले साल कहाँ तक पहुँचता हूँ?

Saturday, July 12, 2008

दर्जी

आज हुआ एक विष्फोट
फैला समाज में आक्रोश
आतंकवादी फड़क उठे
उसी में चला गया एक दर्जी का परिवार
दर्जी का समाज
पर दर्जी न गया
क्यूँ? क्या जानते हैं आप?
जानते भी हैं तो चुप ही रहिएगा

Friday, July 11, 2008

वो

मुंबई की ट्रैफिक और
ड्राईवर की सीट पर परेशां मैं-
सिग्नल के इंतजार मैं
बरबस चाहू और जाती हैं निगाहें

दिसम्बर महीने की सुबह;
पसीने पोछते फेरीवाले
सैकरों लोग सड़क पर करने की लालसा में खड़े

और बगल में
दुपहिये पर सवार दो प्रेमी
अचानक एक क्रंदन से तंद्रा टूटी

सरकारी बस पर शिशु को संभालती वो!
सिहर गया मैं

हिम्मत कर बस इतना ही पूछ पाया -
तुम... यहाँ... कैसे?
पर हार्न की कर्कस ध्वनि में
मेरे निरीह शब्द दब से गए

सिग्नल हो चुका था-
बस कब की जा चुकी थी
और मैं यूं- टार्न पे रुका अतीत के पन्ने पलट रहा था.