Thursday, October 1, 2009

शब्दों की दुकान

चौराहे से चार-कदम आगे रौशनी है -
बारूद-भरे पटाखे सड़क पर - घड़ी-घड़ी धमाका

जाके देखता हूँ तो रंग-बिरंगी चादरों में लिपटी एक मूर्ति दिखती है,
औ उसके नीचे एक नव-दम्पति सर झुका के शतरंज खेल रहे हैं।
हुक्कों की गुरगुराहट से ध्यान बंटता है-
कुछेक दुरी पर इक और जमावट है - बुड्ढों की,
सब मग्न अपनी दुनिया में,
धमाका, धुआं, खेल ।

समय देखता हूँ, शाम हो चुकी है- खरीदारी भी करनी है,
दुकानों की तरफ़ मुखातिब हूँ, सब बंद परे हैं।
आश्चर्यचकित सा बंद-बाज़ार से गुजर रहा हूँ,
कुछ कमी का अहसास है-

बाज़ार ख़त्म होते ही पुल आता है -
चलता हूँ तो पुल भी मेरे साथ चला आ रहा सा लगता है,
घर के दरवाजे पे एक इश्तिहार है-
अन्दर जाके देखता हूँ, लिखा है-
"शब्दों की दुकान", "कमिंग शोर्टली" !

1 comment:

Arbind said...

excellent ...too deep...covering too many aspects of sociopolitical issues...good work...u are versetile genious man :-)