Saturday, July 12, 2008

दर्जी

आज हुआ एक विष्फोट
फैला समाज में आक्रोश
आतंकवादी फड़क उठे
उसी में चला गया एक दर्जी का परिवार
दर्जी का समाज
पर दर्जी न गया
क्यूँ? क्या जानते हैं आप?
जानते भी हैं तो चुप ही रहिएगा

Friday, July 11, 2008

वो

मुंबई की ट्रैफिक और
ड्राईवर की सीट पर परेशां मैं-
सिग्नल के इंतजार मैं
बरबस चाहू और जाती हैं निगाहें

दिसम्बर महीने की सुबह;
पसीने पोछते फेरीवाले
सैकरों लोग सड़क पर करने की लालसा में खड़े

और बगल में
दुपहिये पर सवार दो प्रेमी
अचानक एक क्रंदन से तंद्रा टूटी

सरकारी बस पर शिशु को संभालती वो!
सिहर गया मैं

हिम्मत कर बस इतना ही पूछ पाया -
तुम... यहाँ... कैसे?
पर हार्न की कर्कस ध्वनि में
मेरे निरीह शब्द दब से गए

सिग्नल हो चुका था-
बस कब की जा चुकी थी
और मैं यूं- टार्न पे रुका अतीत के पन्ने पलट रहा था.

बदलाव

सुबह-सुबह एक ट्रेन जाती थी सामने की पटरी पर,
आठ पन्द्रह, करतल ध्वनि,
कांव-कांव, कौवा, रुई के फोहे, बादल
बचपन के आजमाए खिलौने -

ठीक से देखूं तो आठ पन्द्रह,
आज भी वो ट्रेन जाती है,
उफ़ ! ये धुआं, कर्कस ध्वनि,
बेसुरा कुआ,काले बादल

पर बच्चे आज भी - छत पे डब्बे गिनते,
कुछ भी तो नही बदला !

हर रोज तमाशा होता है

हम ताना बुनते रहते हैं,
वो यूँ आंधी ले आता है,
दो शब्द नही जुड़ पाते औ'
ये वक्त सिमट'ता जाता है

तुम कहते तो हम रुक जाते,
उस रात तुम्हारी यादों में,
अब ज्ञान नही है सपनों का,
गुनते-धुनते दिन जाता है

हर रोज तमाशा होता है !

भूले भटके

जागी हुई रातों की सुबह
नींद में चलता,
तुम्हे देखता था रोज;

सामने के फुटपाथ पे बेफिक्र चला जा रहा,
बरबस, आँखे थी ठहर जाती;

वक्त बदला। मौसम बदले,
भूले-भटके वापिस उसी सड़क पे
सुबह, नींद में, तुम्हे देखा

उम्र की थकान से धीमे हो चुके
एक मोटा चश्मा, तजुर्बे का...
पर और सब कुछ वैसा ही
बेफिक्र, बरबराता, अपनी दुनिया में मस्त

कौन हो तुम औ कहाँ रहते हो,
क्यूँ हट-ते नही मेरी नजरों से-
तंग आ चुका हूँ मैं अब इस सन्नाटे से
कभी पुकार लो
इस बुजुर्ग को दो वक्त का सहारा मिल जाएगा !

तुम भूलो अब अपना बचपन

एक कवि की शांत दुनिया
छोटा सा आंगन- छोटी सी कुटीया
अठखेलियाँ खेलते शब्द आंगन में
बड़े हुए, हैं अब यौवन में

चिल्कोर हुआ है अट्टहास
शब्द बने अब हैं गर्जन
कवितायेँ कहती हैं कवि से-
लौटा दो मुझको वो बचपन

कवि कहता है...

चल साथ कहीं अब चलते हैं
मैं छोड़ रहा अब ये आंगन
मैं भूला अपने शब्दों को
तुम भूलो अब अपना बचपन

बुलडोजर

सुनो बस्ती वालों सुनो
जल्दी से बंधो अपना सामान
बुलडोजर आया है
कुछ ही देर में सब कुछ तहस नहस हो जाएगा

तीन साल का उगना -
बैठा है बुलडोजर के आगे की सीट पर ड्राईवर की गोद में
चाचा, आप क्यों तोड़ रहे हैं हमारा घर?

बेटे, यहाँ होटल बनेगा
लोटेंगे लोग दारू पीके इधर-उधर
वो गंदे लोग हैं!
तुम अच्छे बच्चे हो....
पापा तुम्हारे लिए नया घर बनायेंगे...
जहाँ ढेर सरे बच्चे होंगे

चाचा, उनको बोलो की कहीं और लोटें
हम इसी जगह रहेंगे मिंकू और टुल्लू के साथ!

क्यों

नींद से बोझिल-उनींदी आँखों से,
न चाहते हुए भी बहुत कुछ हूँ देख जाता
प्यास से सूखे-कटे-फटे होठों से
कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ हूँ कह जाता
क्यों? कहाँ? कब? कैसे?
बहुतों सवाल छोड़ जाता हूँ हर पल
फ़िर सोचता हूँ आखिर-
क्यों है इतना पागलपन?
क्यों रूकती है सांसें?
क्या है ये दीवानापन?

कांच का टुकडा

मेरे सामने वाले मेज पे परा हुआ है,
एक टुटा हुआ कांच का टुकडा

अरसों से इसी हालत में
अविकृत..........अविचलित

और मैं उसमे देख रहा हूँ आज अपनी तस्वीर
विकृत......विचलित

मैं सहन नही कर पाता ये सब कुछ......
और उठा के पटक देता हूँ उसे .....

पर ये क्या?वो टुकडा तो यथावत है....

ओह! शायद एक दूसरी कांच
पर कब तक......आखिर कब तक?

झविता

न भीतर हूँ न बाहर हूँ
इंतजार कर रहा गेट पे हूँ
लाखों की इस भीर में मैं भी चलता हूँ, पागल हूँ

गेट खुलते ही सपनाता हूँ
अपने को अन्दर पाता हूँ
बंद होते ही फ़िर वापस हूँ
पिस रहा भीर में घायल हूँ

इक टांग घुसा दी है इस बार
शायद घुस जाऊँ शातिर हूँ
घुस गया हूँ मैं शान से अब
पर ये क्या मैं तो बाहर हूँ

क्या यह सब एक छलावा था?
इन सब से में अनजाना हूँ
फ़िर लाइन में हूँ, भले घायल हूँ
मैं पागल हूँ, मैं पागल हूँ

हाँ! मैं पागल हूँ, पर अकेला नही हूँ!!!

स्वप्न

मैं देखता हूँ रोज,
उनींदी आँखों से स्वप्न।

अधूरे चेहरे हैं उनमें
अजीबोगरीब, विकृत-अव्कृत
कुछ डर सा लगता मुझे उनसे ,
उन आकृतियों से।

शायद उन्हीं में खोजा है मैंने,
ख़ुद को, अपने आप को
और पाया की स्वप्न स्वप्न न था!
महज एक हकीकत थी।

सपने सच नही होते,
हाँ! पर सच तो सपने हो सकते हैं न?
तो फ़िर दर्पण क्यों??

अतीत

आजकल बहुत दुविधा में हूँ,
सारा घर कबाडखाना बना पड़ा है।

यत्र-तत्र बिखरे पन्ने-विचलित कर देते हैं।
छिपते-छिपाते कितनी बार संजोना चाह है इन्हे,
बचाना चाह है उन आँखों से-
पर अब थक गया हूँ इस रोजाना अभ्यास से मैं!

बहुत दिनों तक तन से लगाकर रखा है इन पन्नों को मैंने-
पर अब ये मेरे लिए अप्रासंगिक हो चुके हैं।
क्या कोई पागल आपकी नजर में है जिसे मैं ये पन्ने उपहार में दे सकूँ?
क्योंकि,मैं इन्हे बेचना नही चाहता और इनका अग्निशमन बर्दास्त नही कर सकता