Friday, June 27, 2008

नींद - एक साक्षात्कार

कल रात की ये बात है....
मैं अकेला (शायद!) अपने कमरे में था।
कि तभी......
अचानक बत्ती गुल हो गई।
और मैंने देखी एक ध्वनि....
तड़पती सी... क्रंदन करती हुई
न जाने कहाँ व्याप्त हो गई वो....
तब से मेरी नींद गायब है (थी)...
यूँ तो पुनः प्रकाश(?) हो गया है
पर क्या यह वही प्रकाश है -
जिसकी मुझे तलाश थी

या फ़िर वो ध्वनि...
कुछ समझ नही सका मैं
एक मित्र (सुभचिन्तक) ने सलाह दी -
सो जाओ! बत्तियां (???) बुझा कर

पर वो ध्वनि (अधूरी सी)
अब भी खोई है मेरी पलकों में...
और शायद यादों में भी....
जाने कब नींद आएगी (इंतजार रहेगा)।

ये एक पागलों सी कहानी है....
पर न जाने क्यों मुझे लग रहा है ये
पागलपन कुछ छिपाना चाहता है मेरे जेहन में
और मैं चाहता हूँ की मैं पागल बना रहूँ.
क्या आपको भी नींद नही आ रही है (?!)

भीगी रात

रात के तीसरे पहर-
ओस से भींगे पत्ते
ठहरी हुई बूँदें
लुट जाएँगी कल की धुप में यूँ ही।

दूर-दूर से आए हैं परिंदे
कर रहे हैं कलरव
जीवित है ये बस्ती
गम जायेंगे कल की हवा में यूँ ही।

कुछ देर वक्त रुका है
नम है सब कुछ
शीतल हैं ये ऑंखें
तरस जाएँगी कल की सुबह में यूँ ही

रेशमी लिफाफा

भरी दोपहर में कॉलबेल की आवाज से तंद्रा टूटी
अनमना सा हो उठा- देखा, डाकिया था
पकड़ा गया एक पुलिंदा खतों का।

क्या मुसीबत है?
पापा के कमरे में उस पुलिंदे को पटक-
सोने जा ही रहा था कि
एक रेशमी लिफाफे पर नजर पड़ी

पलट कर देखा तो मोटे अक्षरों में अपना नाम दिखा।
बहुत तारतम्य से खोला उसे
और मिला अपने अतीत से-
चिहारता हुआ, मुझपे हस्ता हुआ मेरा अतीत।

कि तभी-
माँ ने आवाज दी
और मैं उसे अपनी डाइरी में सहेज
निकल पड़ा एक और कप चाय के लिए !!

जुड़ने दो मुझे अतीत से

पकड़ के मेरी ऊँगली
क्यों सिखाया चलना ?
हाथ पकड़ के तुमने मेरा
क्यों सिखाया पढ़ना
फूले नही समाई थी तुम
जब मैंने सीखा था लड़ना

माँ, मैं हार गया उस जीत से
जुड़ने दो मुझे अतीत से

छोटी सी दुनिया थी अपनी
सीमित थी मेरी परिभासाएं
आज बताओ मैं क्या करता
तुमने ही कर वो आशाएं
छोड़ दिया था खुली सड़क पर
दिखला के वो चार दिशायें

माँ, मैं थक गया अब इस रीत से
जुड़ने दो मुझे अतीत से

बहुत बड़ी माँ है ये दुनिया
बहुत दूर हैं चाँद सितारे
कहते हैं कुछ लोग सुहावन
लगते हैं उनको ये सारे
पर न जाने क्यों मुझे ये सब कुछ
लगते थे तेरे साथ ही प्यारे

माँ, अब बुला लो अपने गीत से
जुड़ने दो मुझे अतीत से

मेरा प्यार

उमस सी होती है आज कल रात के वक्त
अकेला मन-बेचैन सा हो जाता हूँ।

बिस्तर से उठता हूँ और-
अपने कमरे की दीवार को कैनवास समझ,
एक चित्र बनता हूँ ।

मन चंचल हो जाता है
अपने भावनाओं के शब्दकोष से बड़े जतन से -
कुछ शब्द चुन श्रंगार करता हूँ उसका
फ़िर अपनी चेतना से -रंग भरता हूँ उसमें।

एक तस्वीर बनती है
मैं उसी से प्यार करता हूँ

कुछ शब्द

मेज पर संजो के रखे पन्ने-
कभी बिखरे हुए थे।

स्वप्न मेरे, शब्द मेरे , ढूंढ कर उसने निकाले
संजो के लिखी एक कविता
और मेरी ही रचना भीख दे गयी मुझे

सोचा पूछूं मैं उससे -
कि किस हक से आखिर,
चुरा ले गयी कुछ शब्द मेरे
जो कहना चाहा था मैंने
कह गयी ख़ुद ही वो मुझसे ।
पर आज देर हो गई है !

कल मिलूँगा तो जरुर कहूँगा-
कि टूटने दो स्वप्न मेरे
बिखरने दो शब्द मेरे
मिटा दो कविता लिखी जो
पर दे दो वो कुछ शब्द मेरे

एक प्रश्न

एक प्रश्न,
हवा में तैर रहा है वह
और मैं उसमें देख रहा हूँ
(साथ सुन भी रहा हूँ)
एक अधूरी तस्वीर

पर आज हवा शांत है
नीरव, अंधकारमय
इक झोंके का इंतजार है उसे
शायद बन जाए वो उत्तर!

लोगों से पूछा है मैंने
प्रलोभन भी दिया है
उत्तर दे दो इसका

पर वो तो प्रश्न ही नही जानते (मेरी तरह!)
क्या आप जानते हैं ?उत्तर देंगे?