आये दिन बदलते अपनी रंग औ महक
निर्विकार, हसते क्यूँ रहते हैं ये?
ये कभी छाँव नहीं देते,
औ ना ही रोकते कभी बारिस की बूंदों को
हाँ, बर्फ के गोले बना गिराते रहते हैं।
अब फल तोड़ने का रिवाज नहीं रहा
ना ही झूलते देखता हूँ बच्चों को इन पेड़ों पे।
मेरे हाथों में पत्थर है आज,
और चंचल है मन भी।
आशातीत इक प्रयास,
पर चोट से ये पेड़ बिखर जाते हैं।
ये पेड़ कांच के हैं।
Saturday, May 1, 2010
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