Saturday, May 1, 2010

कांच के पेड़

आये दिन बदलते अपनी रंग औ महक
निर्विकार, हसते क्यूँ रहते हैं ये?

ये कभी छाँव नहीं देते,
औ ना ही रोकते कभी बारिस की बूंदों को
हाँ, बर्फ के गोले बना गिराते रहते हैं।

अब फल तोड़ने का रिवाज नहीं रहा
ना ही झूलते देखता हूँ बच्चों को इन पेड़ों पे।

मेरे हाथों में पत्थर है आज,
और चंचल है मन भी।
आशातीत इक प्रयास,
पर चोट से ये पेड़ बिखर जाते हैं।

ये पेड़ कांच के हैं।

1 comment:

MANKEBOL said...

हाथ में पत्थड़ लिए क्या सोचा था
लिख दूँ वो नाम उस पेड़ पर,
और फिर जब भी यहाँ से गुजरु,
खुश हो जाऊं वो देखकर......thanks for saving the tree :)