Friday, July 11, 2008

अतीत

आजकल बहुत दुविधा में हूँ,
सारा घर कबाडखाना बना पड़ा है।

यत्र-तत्र बिखरे पन्ने-विचलित कर देते हैं।
छिपते-छिपाते कितनी बार संजोना चाह है इन्हे,
बचाना चाह है उन आँखों से-
पर अब थक गया हूँ इस रोजाना अभ्यास से मैं!

बहुत दिनों तक तन से लगाकर रखा है इन पन्नों को मैंने-
पर अब ये मेरे लिए अप्रासंगिक हो चुके हैं।
क्या कोई पागल आपकी नजर में है जिसे मैं ये पन्ने उपहार में दे सकूँ?
क्योंकि,मैं इन्हे बेचना नही चाहता और इनका अग्निशमन बर्दास्त नही कर सकता

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