Friday, July 11, 2008

भूले भटके

जागी हुई रातों की सुबह
नींद में चलता,
तुम्हे देखता था रोज;

सामने के फुटपाथ पे बेफिक्र चला जा रहा,
बरबस, आँखे थी ठहर जाती;

वक्त बदला। मौसम बदले,
भूले-भटके वापिस उसी सड़क पे
सुबह, नींद में, तुम्हे देखा

उम्र की थकान से धीमे हो चुके
एक मोटा चश्मा, तजुर्बे का...
पर और सब कुछ वैसा ही
बेफिक्र, बरबराता, अपनी दुनिया में मस्त

कौन हो तुम औ कहाँ रहते हो,
क्यूँ हट-ते नही मेरी नजरों से-
तंग आ चुका हूँ मैं अब इस सन्नाटे से
कभी पुकार लो
इस बुजुर्ग को दो वक्त का सहारा मिल जाएगा !

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