Friday, July 11, 2008

झविता

न भीतर हूँ न बाहर हूँ
इंतजार कर रहा गेट पे हूँ
लाखों की इस भीर में मैं भी चलता हूँ, पागल हूँ

गेट खुलते ही सपनाता हूँ
अपने को अन्दर पाता हूँ
बंद होते ही फ़िर वापस हूँ
पिस रहा भीर में घायल हूँ

इक टांग घुसा दी है इस बार
शायद घुस जाऊँ शातिर हूँ
घुस गया हूँ मैं शान से अब
पर ये क्या मैं तो बाहर हूँ

क्या यह सब एक छलावा था?
इन सब से में अनजाना हूँ
फ़िर लाइन में हूँ, भले घायल हूँ
मैं पागल हूँ, मैं पागल हूँ

हाँ! मैं पागल हूँ, पर अकेला नही हूँ!!!

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