मुंबई की ट्रैफिक और
ड्राईवर की सीट पर परेशां मैं-
सिग्नल के इंतजार मैं
बरबस चाहू और जाती हैं निगाहें
दिसम्बर महीने की सुबह;
पसीने पोछते फेरीवाले
सैकरों लोग सड़क पर करने की लालसा में खड़े
और बगल में
दुपहिये पर सवार दो प्रेमी
अचानक एक क्रंदन से तंद्रा टूटी
सरकारी बस पर शिशु को संभालती वो!
सिहर गया मैं
हिम्मत कर बस इतना ही पूछ पाया -
तुम... यहाँ... कैसे?
पर हार्न की कर्कस ध्वनि में
मेरे निरीह शब्द दब से गए
सिग्नल हो चुका था-
बस कब की जा चुकी थी
और मैं यूं- टार्न पे रुका अतीत के पन्ने पलट रहा था.
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2 comments:
बहुत खूब.…साथ नहीं जो, कहलाती है वो।
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