सुबह-सुबह एक ट्रेन जाती थी सामने की पटरी पर,
आठ पन्द्रह, करतल ध्वनि,
कांव-कांव, कौवा, रुई के फोहे, बादल
बचपन के आजमाए खिलौने -
ठीक से देखूं तो आठ पन्द्रह,
आज भी वो ट्रेन जाती है,
उफ़ ! ये धुआं, कर्कस ध्वनि,
बेसुरा कुआ,काले बादल
पर बच्चे आज भी - छत पे डब्बे गिनते,
कुछ भी तो नही बदला !
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