Friday, July 11, 2008

कांच का टुकडा

मेरे सामने वाले मेज पे परा हुआ है,
एक टुटा हुआ कांच का टुकडा

अरसों से इसी हालत में
अविकृत..........अविचलित

और मैं उसमे देख रहा हूँ आज अपनी तस्वीर
विकृत......विचलित

मैं सहन नही कर पाता ये सब कुछ......
और उठा के पटक देता हूँ उसे .....

पर ये क्या?वो टुकडा तो यथावत है....

ओह! शायद एक दूसरी कांच
पर कब तक......आखिर कब तक?

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