मैं देखता हूँ रोज,
उनींदी आँखों से स्वप्न।
अधूरे चेहरे हैं उनमें
अजीबोगरीब, विकृत-अव्कृत
कुछ डर सा लगता मुझे उनसे ,
उन आकृतियों से।
शायद उन्हीं में खोजा है मैंने,
ख़ुद को, अपने आप को
और पाया की स्वप्न स्वप्न न था!
महज एक हकीकत थी।
सपने सच नही होते,
हाँ! पर सच तो सपने हो सकते हैं न?
तो फ़िर दर्पण क्यों??
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